Tuesday, December 23, 2014

ऋग्वेद: सूक्तं १.१९

प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥१॥
नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं परः ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥२॥
ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुहः ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥३॥
य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥४॥
ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥५॥
ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥६॥
य ईङ्खयन्ति पर्वतान्तिरः समुद्रमर्णवम् ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥७॥
आ ये तन्वन्ति रश्मिभिस्तिरः समुद्रमोजसा ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥८॥
अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सोम्यं मधु ।
 मरुद्भिरग्न आ गहि ॥९॥

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